फिर चले आए उन्ही गलियों में जहाँ से कभी रोज़ गुज़रते थे ।
वक़्त बहुत बीत चला, वो गलियाँ कुछ बदल सी गयी हैं ।
ना आने की क़सम ले कर चल पड़े थे यहाँ से ये क़दम ।
आज आँखों के कोनों से आँसू वहीं बिखरने को बेताब हैं ।
जाने क्या थी बात यहाँ पर, आज दिल में फिर कुछ वही हलचल है ।
उन्हीं गलियों से गुजरना जैसे उसे सजा हो गया
जैसे मैं बेदर्द उसकी चाहतें का बस फसाना ल्हासा गय
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Very nice lines Ravi
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उन्हीं गलियों से गुजरना जैसे उसे सज़ा हो गया
जैसे मैं दर्द उसकी चाहतों का फसाना हो गया
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असल में सही लाइन कुछ ऐसी है !
“उन्हीं गलियों से गुजरना जैसे उसके लिए सजा हो गया
जैसे मैं बेदर्द उसकी चाहतों का बस फसाना रह गया !”
मैं कोई अच्छी कविता नहीं लगता, बस जो वाकिए अधूरे पड़ गए वही समेट रहें हैं, तो कहीं बिखेर रहें हैं !
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kahin sameta, kahin bikhera.
kuch mitaya, kuch likha.
kabhi udheda, kabhi buna.
Lo ban gayi kavita 🙂
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“लिखता” की जगह “लगता” लिखा गया, मुझे खेद है !
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क्या हुआ उन गलियों को छोड़ दिया,
उनकी यादों का जमाना आज भी आबाद है।
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sach hai, yaadon mein wo galiyan aaj bhi waise hi hain 🙂 🙂
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