फिर वही गलियाँ

फिर चले आए उन्ही गलियों में जहाँ से कभी रोज़ गुज़रते थे ।

वक़्त बहुत बीत चला, वो गलियाँ कुछ बदल सी गयी हैं ।

ना आने की क़सम ले कर चल पड़े थे यहाँ से ये क़दम ।

आज आँखों के कोनों से आँसू वहीं बिखरने को बेताब हैं ।

जाने क्या थी बात यहाँ पर, आज दिल में फिर कुछ वही हलचल है ।

8 thoughts on “फिर वही गलियाँ

  1. loveristravi

    उन्हीं गलियों से गुजरना जैसे उसे सजा हो गया
    जैसे मैं बेदर्द उसकी चाहतें का बस फसाना ल्हासा गय

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  2. loveristravi

    उन्हीं गलियों से गुजरना जैसे उसे सज़ा हो गया
    जैसे मैं दर्द उसकी चाहतों का फसाना हो गया

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  3. loveristravi

    असल में सही लाइन कुछ ऐसी है !

    “उन्हीं गलियों से गुजरना जैसे उसके लिए सजा हो गया
    जैसे मैं बेदर्द उसकी चाहतों का बस फसाना रह गया !”

    मैं कोई अच्छी कविता नहीं लगता, बस जो वाकिए अधूरे पड़ गए वही समेट रहें हैं, तो कहीं बिखेर रहें हैं !

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